top of page
  • Instagram
  • Facebook
  • Twitter
  • YouTube

गणतंत्र दिवस और संविधान

लेखक की तस्वीर: H.H. Raseshwari Devi JiH.H. Raseshwari Devi Ji

अपडेट करने की तारीख: 26 जन॰

वेद - आत्मा के लिए दिशानिर्देश।


भारत में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारतवर्ष ने वर्ष 1950 में एक नए संविधान का प्रणयन किया और इसी ऐतिहासिक घटना के सम्मान में हम प्रतिवर्ष उत्सव मनाते हैं। महत्ता के दृष्टिकोण से यह पर्व स्वतंत्रता दिवस से तनिक भी कम नहीं है।


आखिर संविधान में ऐसी क्या विशेष बात है जो इस उत्सव को इतना महत्वपूर्ण बनाती है? प्रथमतः, इसकी महत्ता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारत के सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों एवं कानून के अध्येताओं को भी इसके निर्माण में करीब तीन साल का समय लगा। किन्तु उनके अथक परिश्रम द्वारा जो संविधान लिखा गया अन्ततः उसकी विश्वभर में सराहना की गई। अपने निर्माण से लेकर अबतक भारतीय संविधान ने अनेक कठिनाइयों का सामना किया किन्तु हर बार यह अपनी परीक्षा में खरा उतरा और इस पर हुए प्रत्येक आक्षेप ने इसे और मजबूती ही प्रदान की।


संविधान देश के निवासियों की वस्तुस्थिति एवं उनकी आकांक्षाओं का एक दर्पण है जो देश के विकास की रूपरेखा तय करता है; यही बात इसे इतना महत्वपूर्ण बनाती है।


प्रत्येक क्षेत्र में हमें नियमों और दिशानिर्देशों का पालन करना ही पड़ता है। उदाहरण के लिए ट्रैफिक नियमों को लेते हैं– आप एक ऐसी दुनिया की कल्पना करें जहां ट्रैफिक नियम जैसा कुछ है ही नहीं, जहाँ सभी बेरोकटोक अपनी मर्जी से गाड़ी चलाते हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसा होने पर कितनी भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। नियम और कानून हमें ऊपर उठने और प्रगति करने में सहायक बनते हैं, बशर्ते कि वे नियम न्यायसंगत हों।


आध्यात्मिक जगत् भी इस बात का अपवाद नहीं है। अध्यात्मवाद में आत्मा के लिए भी एक संविधान है, और वह संविधान है- वेद। वेद हमारी आध्यात्मिक यात्रा में मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वहन करते हैं। भारत के संविधान में तो समयानुसार तथा आवश्यकतानुसार अनेक बार संशोधन हुए किन्तु वेद के नियम सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक हैं। अतः उनमें परिवर्तन की अपेक्षा ही नहीं है। यही कारण है कि हिंदू धर्म का वास्तविक नाम है– सनातन धर्म, अर्थात् वह धर्म जिसके सिद्धांत अनाद्यनन्त शाश्वत हैं। वेदों को भगवान ने भी नहीं बनाया। जो वस्तु एक दिन उत्पन्न होती है, वह एक दिन समाप्त भी हो जाती है, और यह बात वेदों पर लागू नहीं होती। भगवान जीवों के प्रति करुणाभाव से द्रवित होकर प्रत्येक सृष्टि चक्र के आदि में वेदों को प्रकट करते हैं। महर्षि वेदव्यास ने भी वेदों की रचना नहीं की, उन्होंने तो मात्र इसका चार भागों में विभाजन किया है। ‘व्यास’ शब्द का अर्थ ‘विभाजक’ होता है, न कि ‘निर्माण करने वाला।’


वेद आध्यात्मिक नियमों के कोशग्रंथ हैं। इनमें सभी के लिए कुछ न कुछ अवश्य विद्यमान है।

यदि कोई परम चरम लक्ष्य अर्थात् भगवदीय दिव्यानंद को प्राप्त करना चाहता है, तो वेदों में इसके लिए भी दिशानिर्देश है। यदि कोई स्वर्ग में जाने का इच्छुक हो, तो वेद इसके लिए भी उन्हें मार्ग का उपदेश करता है। यदि किसी की नरक की सैर करने में रुचि हो तो वेद इसके लिए भी उपाय बतला देते हैं! बस वेदों के विधानों के विपरीत कार्य करते जाइये और आपकी नरक की टिकट पक्की है।


वेदों में सब कुछ स्पष्ट रूप से लिखित है, किन्तु फिर भी इसे पढ़कर आध्यात्मिक ज्ञान पाने की कल्पना करना व्यर्थ है। क्यों? भारत के संविधान के आलोक में इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं। हालांकि भारतीय संविधान अत्यंत विस्तारपूर्वक (लगभग 1,45,000 शब्द) लिखा गया है, तथापि इसकी व्याख्या के विषय में अनेक बार विवाद उपस्थित हो जाते हैं। यहां तक कि मानवाधिकार जैसे अत्यावश्यक अंगों के विषय में भी सर्वोच्च न्यायालय में पर्याप्त बहस हो चुकी है। 'केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य'– यह केस इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है। इस केस में धर्म और संपत्ति के अधिकार, जिन्हें मूलभूत अधिकार माना गया है, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में बहस के लिए गए। भारतीय इतिहास में आजतक की जजों की सबसे बड़ी पीठ, जिसमें कि 13 सम्मानित न्यायाधीश थे, ने इस केस पर अपना अंतिम निर्णय सुनाने में पांच महीने से भी अधिक समय लिया। यह फैसला भी 7-6 के अंतर से आया। मतलब कि सात न्यायाधीश एक पक्ष में सहमत थे जबकि बाकी छः की व्याख्या दूसरी थी।


वेदों के साथ भी यही समस्या है। हालांकि कोई भी व्यक्ति जो थोड़ी-बहुत संस्कृत जानता हो, इसे पढ़ सकता है, लेकिन इसका वास्तविक मर्म समझना और व्याख्या कर पाना एक अलग विषय है। उदाहरण के लिए, ‘आत्मा’ शब्द वेदों में कई स्थानों पर आया है। सामान्य रूप से इसका उपयोग जीवात्मा, अर्थात् प्रत्येक जीव में स्थित व्यक्तिगत चेतना को इंगित करने के लिए होता है। लेकिन वेद में इस शब्द का प्रयोग भगवान के लिए भी हुआ था। यदि कोई इसका जीवपरक अर्थ समझ ले, तो मन्त्र के अर्थ का अनर्थ हो जाता है। एक और उदाहरण – ‘इंद्र’ शब्द वेदों में सामान्य रूप से कई बार प्रयुक्त है। आमतौर पर इसका प्रयोग स्वर्ग के राजा, वर्षा और वज्र के देवता को बतलाने के लिए किया जाता है। लेकिन कुछ मंत्रों में यह इंद्र शब्द भगवान का वाचक है। भले ही स्वर्गसम्राट इंद्र एक शक्तिशाली देवता है, किन्तु वह सृष्टिकर्ता नहीं है। वर्तमान में हमें इस बात की स्मृति तो नहीं है, लेकिन हममें से प्रत्येक जीव इंद्र बन चुका है, न केवल एक बार बल्कि कई बार....


वास्तविकता यह है कि वेदों की ठीक-ठीक व्याख्या किसी साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं है। केवल भगवत्प्राप्त संत ही वेदों की समुचित व्याख्या कर सकते हैं।


किसी व्यक्ति का बौद्धिक स्तर या उसकी विद्वत्ता मायने नहीं रखती। यदि उस व्यक्ति ने भगवत्प्राप्ति नहीं की है, तो वेदों को पढ़ने से उसे भ्रम ही हो सकता है किन्तु ज्ञान नहीं हो सकता। यह उस व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति के लिए बाधक भी हो सकता है क्योंकि कोरा पुस्तकीय ज्ञान अहंकार को जन्म देता है और हम जानते हैं कि अहंकार अध्यात्म के पथ का सबसे बड़ा अवरोधक है।


इसलिए सबसे पहले हमें एक वास्तविक गुरु की खोज करनी चाहिए। गुरु के मिल जाने पर स्वयं को पूरी तरह से गुरु को समर्पित कर, वेदों का सार जानकर, अपनी आध्यात्मिक यात्रा को आगे बढ़ाना चाहिए।


नोट: यदि आपके पास कोई आध्यात्मिक प्रश्न हैं, तो बेझिझक पूछें। देवी जी आपके प्रश्न का उत्तर ब्लॉग पोस्ट के रूप में यहाँ दे सकती हैं। अपना प्रश्न यहाँ भेजें:

व्हाट्सएप: 8280342372


आपको यह भी पसंद आ सकता है:




94 दृश्य0 टिप्पणी

Comments


bottom of page